Partition, 1947

जंग हुई,
बंटवारा हुआ ,
हिंदू ने मुस्लिम को काटा,
मुस्लिम ने हिंदू को,
सरहदें तय की गई,
दो मुल्क बने,
आज़ाद हुए,
भाई, बाप, चाचा, ताऊ सब लड़ लिए, कुछ बचे, कुछ मर गए।
हमें अपने ही जैसों की नापाक कौम में छोड़कर वह चले गए।
उन्होंने दूसरों की औरतों, बीवियों, बेटियों को लूटा,
दूसरे भी हमारी छाती पर से चढ़कर हमें रौंधते हुए आगे बढ़ गए,
किसे चाहिए था देश ऐसा?
किसे जाना था उस पार?
तुम लड़ लिए, खून की नदियां बहा कर मर गए।
बचा क्या?
वो खतरनाक यादें?
वो हमारा चीखना चिल्लाना,
अपनों को अपनी ही आंखों के सामने कटते देखना,
बेटियों की इज़्ज़त बचाने के लिए उनका गला खुद घोट देना,
कुएं में कूद जाना,
ख़ुद को आग लगा लेना या ज़हर खा लेना? या पराए मर्दों द्वारा उनकी हवस और दुश्मनी की आड़ में हमारी आबरू का लुट जाना?
किसी पराए घर जाकर जब किसी से दिल लगाया तो वह भी तुमसे देखा ना गया तब भी तुमने अपने सही गलत के नियम हम पर थोपे और हमें फिर अपनों से अलग कर दिया।
यह सवाल अक्सर मेरे मन को कचोटता है,क्या तुमने कभी हमें इंसान समझा भी या नहीं? जब ज़रूरत पड़ी इस्तेमाल कर लिया।
जैसे सही लगा घर में वैसे सजा लिया,
अपने रीति-रिवाज़ों में ढाला,
कभी भी ज़लील किया,
हमें अपना ग़ुलाम बना लिया।
फैसला तुमने किया हमें बस सुना दिया, बंटवारा तुमने किया हमें तो जीते जी दोजक पहुंचा दिया।

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